उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों का ऐलान हो चूका है, इसके साथ ही सियासी समीकरण देखें जाने लगे है. यूपी में जातीय-धार्मिक समीकरण हमेशा से महत्वपूर्ण रहे है और इस बार भी रहेंगे. इसके साथ ही इस बार ब्राह्मण और मुसलमान मतदाताओं को किंग मेकर कहा जा रहा है. इससे पहले कभी भी इन दो समुदायों के सामने अपने राजनीतिक विकल्पों को लेकर किंतु परंतु जैसी स्थितियां नहीं बनी.
एक्का-दुक्का मौके छोड़ दिए गए तो पीछले तीन दशक से ब्राह्मण लगभग बीजेपी के साथ ही रहे है और मुस्लिम बीजेपी विरोधी. इस दौरान जो भी बीजेपी के खिलाफ मजबूत नजर आया है मुसलमानों ने उसका साथ दिया है.
ब्राह्मण-मुसलमान हो सकते है किंग मेकर
लेकिन अब इन दोनों वर्गों में से किसी में भी एक दमदार नेता नजर नहीं आ रहा है जो पूरे वर्ग को एकजुट कर सके. ऐसा नेता बीजेपी, सपा, कांग्रेस और बसपा में से किसी भी पार्टी में नजर नहीं आता है.
मजबूत राजनीतिक विरासत और काफी बड़ी तादात के बाद भी आज दोनों ही समुदायों के सामने नेतृत्व का संकट साफ़ नजर आ रहा है. मंदिर आंदोलन से पहले ब्राह्मण कांग्रेस के साथ था. ब्राह्मणों ने हिंदु’त्व के नारे से ललचाकर कांग्रेस का हाथ छोड़ बीजेपी से नाता छोड़ा.
बीजेपी में ब्राह्मणों का नेतृत्व करने वाले नेताओं की कभी कमी नहीं रही. अटल बिहारी वाजपेयी, मुरली मनोहर जोशी से लेकर कलराज मिश्र तक ब्राह्मण नेताओं की लंबी लिस्ट देखने को मिलती है. लेकिन अब बीजेपी के पास यूपी से लेकर केंद्र तक कोई बड़ा ब्राह्मण चेहरा नहीं है.
ऐसा नहीं है कि बीजेपी के पास ब्राह्मण नेता नहीं है लेकिन मौजूद ब्राह्मण नेताओं की अपील असरदार नहीं कहीं जा सकती. ब्राह्मणों का एक तगड़ा वोटबैंक होने के बाद भी बीजेपी ब्राह्मण चेहरों को बड़ा बनाने से परहेज करती नजर आई है.
ब्राह्मणों को रिछाने में लगी पार्टियां
लेकिन अब ब्राह्मण चेहरे की कमी बीजेपी के गले की फंस बनती जा रही है, खासकर पूर्वांचल और अवध के इलाकों में इसका व्यापक असर देखने को मिल सकता है. अयोध्या से गोरखपुर तक दूसरी पार्टियों के ब्राह्मण उम्मीदवार बीजेपी को बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाते दिख रहे हैं.
भाजपा के पास हिंदुत्व और स्थानीय रणनीतियों के अलावा कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो ब्राह्मण मतदाताओं को दूसरी पार्टियों में जाने से पूरी तरह से रोक सके. सपा-बसपा ब्राह्मण वोट बैंक में सेंध लगाने के प्रयास कर रहे है लेकिन ब्राह्मण नेतृत्व की कमी इन पार्टियों में भी देखने को मिल रही है.
वहीं मुसलमान नेतृत्व की बात करें तो बसपा में नसीमुद्दीन सिद्दीकी के जाने के बाद से ही कोई दूसरा नेता नजर नहीं आता है. वहीं सपा में आजम खान से आगे कोई नेता नहीं दिख रहा. सपा आजम खान की अनुपस्थिति में महाराष्ट्र से अबू आसिम आजमी को यूपी लेकर आई जिससे मुस्लिम वोटरों को साधा जा सके.
मुस्लिमों में नेतृत्व का आभाव
हालांकि आजमी मूल रूप से यूपी के ही है लेकिन उनकी राजनीतिक जमीन महाराष्ट्र और मुंबई में है. मुस्लिम चेहरों की कमी कांग्रेस और दूसरी पार्टियों में भी देखने को मिलली है. हालांकि कांग्रेस अन्य पार्टियों से बेहतर है लेकिन वो बीजेपी को सीधी टक्कर देती नजर नहीं आ रही, ऐसे में उसके संपन्न होने ना होने का कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा.
बीजेपी ब्राह्मण-बनियों की पार्टी के लेबल को अब करीब-करीब ख’त्म कर चुकी है. सपा-बसपा ब्राह्मणों को लुभाने में लगे है, आतंरिक सूत्र बताते है कि दोनों पार्टियां बड़े पैमाने पर ब्राह्मणों को टिकट देने जा रही है. उन सीटों पर जहां ब्राह्मणों के झुकने के चलते नतीजों में बदलाव संभव है.
वहीं सपा बीजेपी की तरह मुस्लिम लेबल से बचती दिख रही है. पार्टी आजम जैसा चेहरा बनाने के प्रयास में नहीं है. सपा को भरोसा है कि बीजेपी को हराने के लिए मुस्लिम वोटर उसी के पास आएगा.